एक नई पूरी सुबह
(विश्वरंजन पर एकाग्र)
संपादक
जयप्रकाश मानस
पुरोवाक् – जयप्रकाश मानस
कविताएँ
1. तुम ग़लत कहती हो मैं तुम्हारा वही मुन्ना नहीं हूँ मां
2. रात की बात
3. शब्दों के बाबत
4. मैं फिर से नया लोहबान जलाता हूँ
5. अँधेरे से लड़ने के लिए स्वप्न का होना बेहद ज़रूरी है
6. साँसों के बीच की चुप्पी और नावों का शहर
7. मैं अभी तक शाम से टिका लेटा अपनी सुबह में क़ैद हूँ
8. मेरा ख़ानाबदोश हो जाना
9. आदिम प्रलय की प्रतिगूँज आज तक जीवित है मुझमें
10. वह लड़की बड़ी हो गई है
11. बोरस ! तुम ग़लत कहते हो कि जीवन बच्चों का खेल नहीं
12. एक नई पूरी सुबह
13. हम-तुम मिल उसमें हज़ारों फूल उगाएँगे
14. शक्ति स्पंदन
15. हम और तुम अब कहीं नहीं जाएँगे
16. और मेरी बच्ची डरकर रोने लगती है
17. भारत माता की जय
18. क्रांति की बातें मत करो
19. बाज़ार के इर्द-गिर्द घूमती कुछ चंद कविताएं
20. बाज़ार की मार और आज का आदमी
21. तलाश बाज़ार से बाहर निकल आने की
22. बाज़ार के ख़िलाफ़ जंग का पहला ऐलान
23. बाज़ार से लड़ना एक अनिवार्य हिमाक़त है
24. बाज़ार वह मन है....
25. साहब सब जगह साहब होता है
26. साहब-1
27. साबह-2
28. साहब की एक मेमसाहब होती है...
29. कलक्टर साहब और क्लबघर
30. क्लबघर और बीवियाँ
31. क्लबघर से निकली कविता
32. गौग के साइप्रेस पेड़ और क्लबघर
33. कि हमारे बचपन की दिवाली वापस मिल जाये हमें
34. समय से पहले मुरझाना
35. कोलाज़
36. बूढ़ा आदमी-बूढ़ी औरत
37. जीतन के हार जाने का जश्न
38. अब छुट्टियाँ नहीं आती हमारे लिए
39. पेड़
40. न बोला जाने वाला...
41. एक बेहतर दुनिया – एक बेहतर इंसान का स्वप्न
42. भूखे लोगों के आँखों में ज़मी हुई चुप्पी
43. और सुबह एक नया पृष्ठ खोलें
44. तुम तो जानती ही हो
45. अकेले चलते चले जाना
46. हम और तुम
47. साधो प्रेम में ही सब कुछ संभव है
आलेख-समीक्षा-डायरी
1. मेरी अधूरी काव्य-यात्रा
2. कविता के इर्द-गिर्द
3. कबीरःभारत का पहला क्रांतिकारी और सेक्युलर कवि
4. फ़िराक़ की शायरी-सदियों की आवाज़
5. आधुनिक कला को समझने की ग़लत ज़िद
6. मिथिलेश्वर के सुरंग में सुबह के बहाने कुछ और भी
7. विश्वरंजन की डायरी से कुछ उद्धरण
साक्षात्कार
1. कविता में तानाशाही नहीं चलायी जा सकती
2. बाज़ारवाद आधुनिक टेक्नालॉजी के कारण जन्मा है
3. हर साहित्यिक रचना एक स्तर पर अपूर्ण रहती है
4. मैं क्या हूँ शायद बहुत अधिक भ्रमित या अतियथार्थवादी
मूल्याँकन
1. शताब्दी की संवेदना समेटती विश्वरंजन की कविताएँ – बद्रीनारायण सिंह
2. बहुत हो चुका शब्दों का छल- वंदना मिश्र
3. हाथों को लोहा बनाना और दिल को फूल – संजय कृष्ण
4. बेहतरी के स्वप्न – डॉ.विजयलक्ष्मी शर्मा
5. विरोधाभासो में सामंजस्य यानी विश्वरंजन – डॉ. जे.एस.बी.नायडु
कृति-समीक्षा
-आत्मा की संवेदनशीलता - बबन प्रसाद मिश्र
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